पुल से चलके,
नदी के उस पार गए हो कभी ?
जहां गालियाँ थोड़ी सकरी हैं,
और सब भोले भाले रहते हैं।
जिसको जो सब पढ़े लिखे हैं,
शहर पुराना कहते हैं।
जहां दादाजी के कुछ,
दोस्त रहा करते हैं।
जो हर बात पे,
“वो भी क्या दिन थे” कहा करते हैं।
कुछ कहती हैं वो दीवारें,
जो हो चली है पुरानी।
और हरी-सफ़ैद वो मीनारें,
है उनपे भी कुछ कहानी।
माँ जहाँ अब भी कुछ,
मसाले लाने जाती है।
जिनकी खुशबू कुछ,
अलग अलग सी ही आती है।
वो मस्जिद जिसकी पीठ,
सटी हुई है एक मंदिर से।
और दुकाने पुरानी सब,
जो अब भी नई हैं अंदर से।
दीदी कहती है वहाँ का,
कपड़ा खूब ही चलता है।
चौराहे वाले रंगरे का,
रंग ही नहीं निकलता है।
जो नान वहां पे मिलती है,
वो स्वाद कितनी होती है।
प्लेट थोड़ी मैली सी,
पर परवाह किसको होती है ।
जो एक बार भी वहां,
जी लगा आ जायेगा।
यही कहेगा वो सबसे,
सबको यही बताएगा।
नदी के इस पार,
जो ये नया वाला शहर है।
वो नदी के उस पार सा,
शहर नहीं बन पाएगा।
– Ashish Choudhary & Srishti Arya